विवशता या इच्छाशक्ति की कमी

अंततः ऑफिस से छुट्टी नहीं मिली और मैं घर नहीं जा पा रहा हूँ।

आज इस व्यस्तता के दौर में जब कभी अपने अतीत में झांक कर देखता हूँ तो मन में एक उथल-पुथल सी मच जाती है। बरबस ही दिल भर जाता है, चेहरे पर उदासी रेखांकित हो जाती है।

क्या हमने यही सोचा था, अपने भविष्य के बारे में? हमने पढाई इसीलिए की थी। एक-एक रुपये जोड़-जोड़ कर मेरी पढाई के लिए पिताजी ने फीस भरी थी। सोचा था की बेटे को भविष्य में कोई कष्ट न हो, इसलिए खुद कष्ट सहकर मुझे पढाया, अच्छी डिग्री दिलवाई। पर आज जब खुद को इस हाल में पाता हूँ, आंसू गिरने लगते है.

इस वैश्वीकरण के दौर में अपने, पराये बन गए हैं और पराये से अपनापन दिखाना पड़ता है। और-तो-और कुछेक का साथ ऐसा लगने लगता है कि ये मेरे जन्मों के साथी हैं। मां – पिताजी का ख्याल शायद ही कभी ज़ेहन में आये पर यहाँ पर ऐसे बहुत से हमारे सम्बन्धी बन गए जिनको अपनापन दिखाना पड़ता है, उनकी नाराजगी का ख्याल रखना पड़ता है। माँ -पिताजी, वहाँ कोसों दूर बैठे, बेटे की सलामती की दुआ मांग रहे हैं। वो इस बात को सोंचकर खुश होंगे कि बेटा राजी-ख़ुशी कमा रहा है और चैन से ज़िन्दगी जी रहा है। परन्तु यहाँ मेरी स्थिति इतनी दयनीय है की मैं खुद से नज़रे नहीं मिला पा रहा हूँ । कहने को तो आज़ाद हूँ पर एक-एक पल गुलामी की जंज़ीरों से जकड़ा हुआ है। बस एक स्वचलित यन्त्र बनकर रह गया हूँ। जहाँ दिल की चलती ही नहीं है। दिल कुछ और कहता पर समय के नज़ाकत समझना पड़ता है।

रात में बिस्तर पर सोने जाता हूँ तो ये सोचकर की सुबह जल्दी उठना है। कई बार आधी रात में ही नींद खुल जाती है और घडी देखकर ख़ुशी मिलती है कि अरे अभी तो आधी रात बांकी है। पर उतना ही दुखी तब होता हूँ जब सुबह फिर घडी देखता हूँ। कई बार बिस्तर पर पड़े-पड़े झपकियाँ लेता हूँ और इसी क्रम में आधा घंटा लेट हो जाता हूँ । बिस्तर से उठते ही मशीन बन जाता हूँ, टाइमिंग मशीन। एक बार चाबी दिया तो एक घंटे के भीतर ही सार काम निबटा के ऑफिस पंहुचकर ही इंसानी रूप में आ पाता हूँ यानि रिलैक्स महसूस करता हूँ । पर वो भी क्षणिक मात्र, जब तक की सीनियर्स या बॉस नहीं आए हो । उनके आते ही फिर खुद को चाबी देकर मशीन बन जाता हूँ । फिर काम, काम और सिर्फ काम। थोड़ी सी ख़ुशी लंच टाइम में तब मिलती है, जब सभी कलिग (सहयोगी) एकसाथ बैठते हैं। खाना से ज़्यादा तो गप्पे मारकर खुद को तरोताज़ा महसूस करता हूँ।

सबसे ज्यादा रिफ्रेशमेंट तो तब होती है जब सभी लोग  काम के प्रेशर में शान्ति से काम कर रहे होते हैं और जिसका काम सफलतापूर्वक हो गया हो वो अचानक से किसी की खिचाई करे और सारे कलिग के चेहरे पर ख़ुशी खिल उठे। ओह्फ़— सच में– कॉलेज के दिन याद आ जाते है। पर उतनी ही तकलीफ तब होती है जब सीनियर आकर आँखे दिखाए। ओह्फ्फ़–!  तब तो ज़िन्दगी, जहन्नुम लगने लगती है।

घंटे-पर-घंटा, दिन-पर-दिन और फिर महीना ख़त्म होने को हो जाता है। जैसे ही सैलरी की तारीख आई, पता नहीं — अन्दर से अजीब सी ख़ुशी आ जाती है। शायद, उसी दिन सिर्फ मेरा मन खुश होता है। वो भी पूरी ख़ुशी मिलती है। ऐसा लगता है कि आज के एक दिन की ख़ुशी के लिए ही, पिछला तीस दिन हँस के दुःख झेला। जबकि मेरे बैंक के खाते में अभी भी पर्याप्त पैसे है पर न जाने क्यूँ ऐसा लगता की आज अगर सैलरी की तारीख पर, नीयत समय पर सैलरी नहीं मिली तो पिछले तीस दिन की अरमानों और इच्छाओं से बनी ख़ुशी की दुनिया तबाह हो जायेगी। जबकि मैं भी जानता हूँ दी अगले एक सप्ताह सैलरी न मिले तो कोई फर्क नहीं पड़ने वाला।

काम करते – करते कई वर्ष गुज़र गए पर आज भी मेरे  पास पर्याप्त रुपये जमा नहीं हो पाए, जितने की आशा करता हूँ । एक अच्छा कपडा सिर्फ इसलिए नहीं खरीदता हूँ कि अतिरिक्त खर्च पर काबू पाकर पैसे बचाऊं और घरवालों की मदद करूँ। पर ये मन कपड़े की ख़रीद पर तो काबू पा लिया परन्तु गर्लफ्रेंड की एक छोटी ख्वाहिश पर लुटा दिया।

जब छोटा था तो चाची, बुआ, दादी, बड़ी दीदी सभी कहतीं थी जब तुम कमाओगे तो मेरे लिए अच्छे – अच्छे कपड़े ला देना । पर यहाँ इस संवेदनहीन माहौल का सामना करते-करते मैं खुद असंवेदनशील बन गया हूँ। वो दादी की बूढी आँखें आज भी याद है मुझे, कितना प्यार झलकता था उसमें । एक हलकी आह पर, पूरा घर सर पर उठा लेती थी। कितनी आशाएं थी मुझसे, दादी को।

आज घर से फ़ोन आया -“दादी नहीं रही दुनिया में।” मैं उस समय ऑफिस में बौस के सामने था। न मैं रो पा रहा था न ही कोई प्रतिक्रिया दे रहा था, बस जैसे मैं  ज़मीन में गड़ा जा रहा था।  मैं निर्णय नहीं कर पा रहा हूँ – ये हमारी विवशता है या इच्छाशक्ति की कमी।

                                                                                           — “Rakesh Kumar Ranjan”

2 Comments

  1. Dr.K.K.S.S

    Bahut khoob likha hai aapne , es ke liye aapko bahut bahut badhaiya…

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