सपनों की हक़ीक़त
आधी रात थी। आकाश में तारे टिमटिमा रहे थे, जैसे असंख्य दीये जल रहे हो और मंद बयार के झोंकों से दीये खुद को बुझने से बचा रही हो। वातावरण शांत-शीतल-स्नेहयुक्त थी। इतने तंदरुस्त, इतने चौकन्ने कि होंठ भी हिले तो इसकी खबर दूसरे कानों तक पंहुचा देते।
ऊपर नभ (आकाश) में सुनहरे रत्न जड़ित, स्लेटी रंग के वस्त्र में “चाँद” दुधिया बादल के घूंघट से मुस्कुराते हुए सब देख रहा था ।
आँखों के सामने विचित्र सुखकर-माहौल था। खिड़की के झरोंखो से, विश्व के समूचे-सुन्दरता को अपने अंतर में समेटी, तारों-जड़ित, स्याही-वस्त्र धारण किये, मेरी “मन-परी” मुझे निद्रावस्था में निहार रही थी। एक-क्षण तो मैंने महसूस किया कि स्वप्न देख रहा हूँ, तत्क्षण, मैंने पलकों को बार-बार झपकाया, परन्तु, पुर्वोवस्था कि भांति आँखों के सामने वही दृश्य आसीन थी। मैं उसे हैरान मुद्रा में बस निहार रहा था। हम दोनों परस्पर एक-दूसरे को देखे जा रहे थे।
मैं उससे कुछ पूछना चाहा, इतने में उसने स्याही-बदरी सी घूंघट अपने आधे चेहरे पर खिसका लिया, तो मेरे चेहरे पर भी परेशानी की स्याही-बदरी साफ नज़र आने लगी। कुछेक-क्षण वो इसी तरह घूंघट कि आड़ से आँख-मिचौली खेलता रहा। अपितु, वो घड़ी आई जब वो बेपर्द मेरे सम्मुख खड़ी थी।
तत्पश्चात, मैं उसके समीप जाना चाहा। जितना पास जाना चाहा, वो उतनी ही दूर जाती रही। अभी मैंने बोला ही था – “हे कौमार्ये! हे मनभावने! अति-सुन्दरे!” कि मैं खिड़की के झड़ोखों से टकरा गया। अचानक अनुभव किया कि – “मैं नींद से जाग गया”!
फिर मैंने महसूस किया – अभी मैं स्वप्न में ही कल्पना जगत का अधिवासी (ख्यालों में रहने वाला) था। जिसे मैं अपने “मन-परी” समझ रहा था वो तो कोई और दूर-देश नभराज (अाकाश) की राजकुमारी “चाँद” थी।
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